असुर समुदाय झारखंड की सबसे प्राचीन जनजाति है। इसका प्रवेश झारखंड में मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ होते हुए हुआ है। भारत में सबसे ज्यादा असुर जनसंख्या झारखंड में है। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी इसकी जनसंख्या पाईजाती है।इसका झारखंड मे आगमन 600BC से 4000 BC माना गया है।इसका जिक्र ऋग्वेद, अरण्यक, उपनिषद और महाभारत में मिलता है। असुरों को हड़प्पा सभ्यता का प्रतिष्ठापक़ माना जाता है। असुरों की उपस्थिति का प्रमाण ताम्र, कांस्य और लौह युग में भी मिलता है।
असुर के विभिन्न नाम
1. पूर्वदेवा
2. रामायण में असुर की चर्चा कोल नाम से मिलती है।
3 ऋग्वेद में इसका जिक्र अनासह:, अव्रत, मुर्ध: वाच और सुदृढ़़ शब्दो से किया गया है।अनासह: का अर्थ चपटी नाक वाले, अव्रत का अर्थ विभिन्न आचरण करने वाले, मुर्ध: वाच मतलब अस्पष्ट बोलने वाले, सुदृढ़ मतलब लौह दुर्ग निवासी।
4. ऋग्वेद में असुर को लिंगपुजक भी कहा गया है।
असुर जनजाति का वर्गीकरण
झारखंड में यह आदिम जनजाति की श्रेणी में आता है। यह प्रोटो ऑस्ट्रालॉयड जनजातीय परिवार के अन्तर्गत आते है। इसकी भाषा आसुरी है जो विलुप्त होने के कगार में है। आसुरी भाषा मुंडारी (एशियाटिक या एस्ट्रो-एसियाटि) भाषा परिवार के अन्तर्गत आता है। आसुरी भाषा को मालेय भी कहा जाता है। यह एक अल्पसंख्यक जनजाति है जिसकी जनसंख्य 2011 के जनगणना के आधार पर मात्र 22459 है जो झारखंड की जनजातीय जनसंख्या का मात्र 0.26% है।
असुर जनजाति के तीन उपवर्ग है:-
1. बीर असुर
2. बिरजिया असुर
3. अगरिया असुर
असुर का निवास स्थान
असुर समुदाय का मुख्य जमाव झारखंड के पाट क्षेत्र में है। ये गुमला, लोहरदग्गा, लातेहार और पलामू में पाया जाता है। झारखंड में मुंडा के आगमन से पहले ही असुर झारखंड में बसे हुए थे। जब मुंडाओ का आगमन 600BC में हुआ तो असुर और मुंडा में संघर्ष हुए जिसमे मूंडाओ की जीत हुई और असुरों को राँची क्षेत्र छोड़कर पाट क्षेत्र में शरण लेना पड़ा। मुंडा के लोककथा 'सोसो बोंगा' में इसका जिक्र मिलता है।
असुर की जीविका - असुर समुदाय का परंपरागत पेशा लौहकर्म है। लोहा गलाने और उससे अस्त्र-शस्त्र और कृषि उपकरण बनाने में बहुत निपुण होते है। इस व्यवसाय की उन्नति के लिए असुर समुदाय कुटसी पर्व मनाते है। वर्तमान में ये लोग कृषि और पशुपालन में भी जुड़ गए।
खानपान
ये सुबह के खाने को लोलो घोटू जोमकु और शाम के खाने को बियारी घोटु जोमकु कहते है। चावल से बने शराब को बोथा या झरनूई कहते है। इसके जीवन में धूम्रपान का बहुत महत्त्व है साल के पत्ते में तंबाकू लपेटकर "पिक्का" बनाकर धूम्रपान करते है।
असुर की समाजिक व्यवस्था
असुर समाज पितृसत्तात्मक होता है। असुर समाज में संयुक्त और एकल दोनो तरह के परिवार पाया जाता है।असुर समाज में चाममबंदी संस्कार पाया जाता है जिसमें शिशु की सुरक्षा के लिए चमड़े का धागा पहनाया जाता है और यह धागा विवाह के उपरांत ही खुलता है।असुर विवाह में वधुमूल्य देने की प्रथा है, वधुमुल्य को 'डाली टाका' कहा जाता है। 'ईदी-मी (ईदी-ताई-मा)'विवाह का प्रचलन असुर समुदाय में पाया जाता है। इस प्रकार के विवाह में लड़का लड़की स्वेच्छा से बिना विवाह संस्कार पुरा किये हुये पति-पत्नी की तरह साथ रह सकता है मगर कभी न कभी विवाह संस्कार से गुजरना पड़ता है। विधवा विवाह एवं तलाक का भी प्रचलन है। इस जनजाति के युवागृह को गीतीओडा कहते है।
धार्मिक जीवन
असुर के प्रधान देवता सिंहबोंगा है। इसके आलावे असुर मरांग बूरू, धरती माता, पाट दरहा, दुआरी और तुसहुसीद देवता की पूजा करते है। असुर गांव के पुजारी को बैगा कहते है और बैगा के सहायक को सुआरी कहा जाता है। कुटसी, कथडेली और पाटदेवता की पूजा असुरों में प्रमुख है।इसके अलावा ये सोहराई सरहुल, नवाखानी और फगुआ भी मनाते है।
असुर जनजाति के गोत्र
असुर समुदाय के गोत्र को पारिस कहा जाता है। असुर में 12 पारिस पाया जाता है।
1. बेंग
2. केरकेट्टा
3.ओप्पो
4. बरबा
5. इंदावर
6. बड़का
7.आइंद
8. धान
9. बघना
10. ऊलू
11. खुसर
12. ठीठइयो
असुर पंचायत व्यवस्था
Asur Administrative System
असुर पंचायत व्यवस्था के प्रमुख महतो होता है। इसके अलावा बैगा, गोडायत भी पंचायत व्यवस्था का पदाधिकारी होता है। गोडायत का काम सूचना का प्रसार पूरे गांव में करना।पंचायत अखड़ा में होती है। सबसे बड़ी सजा सामाजिक बहिष्कार है। गांव के सभी बालिग पुरुष पंचायत के हिस्सा होते है। जैसे ही आपत्तिजनक बातें होती है गोडायत पूरे समाज को निर्धारित समय पर इकट्ठा करता है। गांव के बुजुर्गो और पदाधिकारियों द्वारा दोनो पक्षों की बात सुनके, और गवाहों के बात के आधार पर विचार विमर्श करके तुरंत फैसला सुनाया जाता है। पंचायत का फैसला न मानने वालों को गांव छोड़ना पड़ता है। समगोत्रीय विवाह बिलकुल निषिद्ध है।समगोत्रिय विवाह पे सामाजिक बहिष्कार की सजा मिलती है।
असुर पुरातात्विक स्थल
Asur Archeological Sites
खूँटी जिले के तजना नदी के किनारे विकसित असुर सभ्यता का पता चला।इस नदी के किनारे बहुत से स्थल पता चला है की यहां पर कभी असुर सभ्यता थी। यहां पर असुर पुरातात्विक स्थल की सबसे पहले खोज 1915 में शरत चंद्र रॉय ने बेलवादाग में की थी। बेलवादाग में बौद्ध विहार के अवशेष मिले है। यहां उपयोग किएगए ईट का आकार सांची स्तूप के ईट के जैसा है। बाद में भारतीय पुरातात्विक विभाग ने और भी बहुत स्थल की खोज की है,जो निम्नलिखित है
1. कुंजला- इसकी खोज भी शरत चंद्र रॉय ने की थी। यहां से मोटे कपड़े, लोहे के समान,मिट्टी के बर्तन प्राप्त हुए है।
2. कटहर टोली - यह कोटरी नदी तट में अवस्थित है।यहां से दिया घंटी के अवशेष प्राप्त हुए है।
3. सरिदकेल - यह सबसे बड़ा असुर स्थल है।
4. हांसा - सबसे बड़े आकार के ईट यहीं से प्राप्त हुई है।
5. खूँटी टोला - इस स्थल की खोज शरत चंद्र राय ने की थी।
असुर जनजाति से सम्बन्धित तथ्य
Important Facts Of Asur Tribes
1. पहला बच्चा का पुत्री होना समृद्धि का सूचक मानते है।
2. असुर संस्कृति को मय-संस्कृति कहा जाता है।
3. नृत्य स्थल को अखड़ा कहा जाता है।
4. असुर समुदाय में कुंवारे लड़का/लड़की को केला वृक्ष लगाना निषेध है। गर्भवती महिलाओं का सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण देखना भी निषेध है।
असुर जनजाति पर वीडियो
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